
अभिनेता अमर कुणाल ने अख्तर अली द्वारा लिखे इस नाटक को बेहद संवेदनशीलता और खूबसूरत अंदाज़ में प्रस्तुत किया और दर्शकों को अंत तक बांधे रखा।
रोहतक, 16 सितंबर। स्थानीय संस्था हरियाणा इंस्टिट्यूट ऑफ परफोर्मिंग आर्ट्स (हिपा) द्वारा आयोजित 7 दिवसीय एकल नाट्य समारोह के तीसरे दिन मशहूर कहानीकार सआदत हसन मंटो की कहानी पर आधारित नाटक ‘काली शलवार’ का मंचन हुआ। नाटक में बेहद गरीबी और अकेलेपन में दिन काट रही एक तवायफ़ के दुःखों तथा उसके छोटे-छोटे सपनों की दास्तान बयां की गई। अभिनेता अमर कुणाल ने अख्तर अली द्वारा लिखे इस नाटक को बेहद संवेदनशीलता और खूबसूरत अंदाज़ में प्रस्तुत किया और दर्शकों को अंत तक बांधे रखा। नाटक का निर्देशन भी अमर कुणाल ने ही किया। गणेश वंदना एवं संगीत संचालन की ज़िम्मेदारी विकास द्वारा निभाई गई। नाटक का मंचन हिंदी पखवाड़े के उपलक्ष्य में पठानिया वर्ल्ड कैम्पस, हरियाणा साहित्य अकादमी, उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, पटियाला और उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, इलाहाबाद के सहयोग से किया गया।
प्रस्तुत नाटक की कहानी एक तवायफ़ सुल्ताना के इर्दगिर्द घूमती है। सुल्ताना अम्बाला की रहने वाली थी, जहां कई अमीर अंग्रेज़ उसके ग्राहक थे। इस क चलते उसकी अच्छी आमदनी हो रही थी और उसने खूब गहने भी बनवा लिए थे। अपने दोस्त खुदाबख्श के कहने व और ज़्यादा पैसे कमाने के लिए वह दिल्ली आ जाती है, लेकिन यहां न उसको ग्राहक मिल पाते हैं और न खुदाबख्श को कोई काम। खाने के लाले पड़ जाते हैं और धीरे धीरे उसके सारे गहने बिक जाते हैं। इसी दौरान मुहर्रम आ जाता है, लेकिन सुल्ताना के पास मुहर्रम पर पहनने के लिए काले कपड़े भी नहीं होते। कुर्ते और दुपट्टे का इंतज़ाम तो वह जैसे-तैसे कर लेती है, परन्तु काली शलवार नहीं खरीद पाती। इसके चलते वह बेहद दुःखी होती है और उसे अपनी ज़िंदगी से विरक्ति सी हो जाती हैं।
तभी उसके जीवन में शंकर हुसैन आता है। शंकर उसे उसकी पवित्रता और आस्था का अहसास करवाता है। तब सुल्ताना को एहसास होता है कि जिल्लत की जिंदगी से तो इज्जत की मौत अच्छी है और वह तवायफ़ का धंधा छोड़ने का फैसला कर लेती है। काली शलवार न होने का गम उसे अब भी सालता रहता है। लेकिन ठीक मुहर्रम की पहली तारीख को शंकर उसके दरवाजे पर आता है और उसे कपड़ों की एक पोटली दे कर कहता है, ” ये मेरी मां के कपड़े हैं, जो आज सफाई के दौरान मिले। मैंने सोचा कि तुम्हें दे दूं। शायद तुम्हारे किसी काम के हों। तुम रख लेना वरना किसी और जरूरतमंद को दे देना।” सुल्ताना जैसे ही वह पोटली खोल कर देखती है तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता, क्योंकि उसमें काली सलवार होती है। काली सलवार पहनकर सुलताना इमामबाड़े गई जहां मौजूद औरतों ने उसके बारे में पूछा तो उसने बताया कि वह एकदम अकेली है और काम तलाश रही है। इस पर उसे कुछ घरों में सफाई का काम मिल जाता है। अब सुल्ताना घरों में साफ-सफाई और बच्चे संभालने का काम करती है। अब वह न किसी की जान रहती है, न जानेमन, न गुलबदन और न जाने ज़िगर। अब सुल्ताना आपा है, खाला है, बुआ है, बाजी है।
इस अवसर पर विश्वदीपक त्रिखा, आर के रोहिल्ला, धर्मसिंह अहलावत, डॉ. हरीश वशिष्ठ, सुभाष नगाड़ा, पवन गहलौत, विष्णु मित्र सैनी, शशिकांत, श्रीभगवान शर्मा, आकाश, पवन कुमार, गुलाब सिंह खांडेवाल, शक्ति सरोवर त्रिखा, अविनाश सैनी, सुजाता, विकास रोहिल्ला, ललित खन्ना, राहुल सहित अनेक शहरवासी उपस्थित रहे।
– अविनाश सैनी।