
सूफी फकीर बायजीद बार—बार कहता था कि एक बार एक मस्जिद में बैठा हुआ था। और एक पक्षी खिड़की से भीतर घुस आया। बंद कमरा था, सिर्फ एक खिड़की ही खुली थी। पक्षी ने बड़ी कोशिश की, दीवालों से टकराया, बंद दरवाजों से टकराया, छप्पर से टकराया। और जितना टकराया, उतना ही घबड़ा गया। जितना घबड़ा गया, उतनी बेचैनी से बाहर निकलने की कोशिश की।
बायजीद बैठा ध्यान करता था। बायजीद बहुत चकित हुआ। सिर्फ उस खिड़की को छोड़कर पक्षी ने सारी कोशिश की, जो खिड़की खुली थी और जिससे वह भीतर आया था!
बायजीद बहुत चिंतित हुआ कि इस पक्षी को कोई कैसे समझाए कि जब तू भीतर आ गया है, तो बाहर जाने का मार्ग भी निश्चित ही है। क्योंकि जो मार्ग भीतर ले आता है, वही बाहर भी ले जाता है। सिर्फ दिशा बदल जाती है, द्वार तो वही होता है। और जब पक्षी भीतर आ सका है, तो बाहर भी जा ही सकेगा। अन्यथा भीतर आने का भी कोई उपाय न होता।
लेकिन वह पक्षी सब तरफ टकराता है, खुली खिड़की छोड़कर। ऐसा नहीं कि उस पक्षी को बुद्धि न थी। उस पक्षी को भी बुद्धि रही होगी। लेकिन पक्षी का भी यही खयाल रहा होगा कि जिस खिड़की से भीतर आकर मैं फंस गया, उस खिड़की से बाहर कैसे निकल सकता हूं! जो भीतर लाकर मुझे फंसा दी, वह बाहर ले जाने का द्वार कैसे हो सकती है! यही तर्क उसका रहा होगा। जिससे हम झंझट में पड़ गए, उससे हम झंझट के बाहर कैसे निकलेंगे! इसलिए उस खिड़की को छोड़कर पक्षी ने सारी कोशिश की।
बायजीद ने सहायता भी पहुंचानी चाही। लेकिन जितनी सहायता करने की कोशिश की, पक्षी उतना बेचैन और परेशान हुआ। उसे लगा कि बायजीद भी उसको उलझाने की, फांसने की, गुलाम बनाने की, बंदी बनाने की कोशिश कर रहा है। और भी घबड़ा गया।
बायजीद ने लिखा है कि उस दिन मुझे समझ में आया कि संसार में आकर हम भी ऐसे ही उलझ गए हैं; और जिस द्वार से हमने भीतर प्रवेश किया है, उस द्वार को छोड़कर हम सब द्वारों की खोज करते हैं। और जब तक हम उसी द्वार पर नहीं पहुंच जाते, जहां से हम जीवन में प्रवेश करते हैं, तब तक हम बाहर भी नहीं निकल सकते हैं।
बुद्धि के कारण आप जगत में नहीं उलझ गए हैं। विचार के कारण आप जगत में नहीं उलझ गए हैं। आपके जगत में आगमन का द्वार प्रेम है। आपके अस्तित्व का, जीवन का द्वार प्रेम है। और प्रेम जब उलटा हो जाता है, तो भक्ति बन जाती है। जब प्रेम की दिशा बदल जाती है, तो भक्ति बन जाती है।
जब तक आप अपनी आंखों के आगे जो है उसे देख रहे हैं, जब तक उससे आपका मोह है, लगाव है, तब तक आप संसार में उतरते चले जाते हैं। और जब आप आख बंद कर लेते हैं और जो आख के आगे दिखाई पड़ता है वह नहीं, बल्कि आख के पीछे जो छिपा है, उस पर लगाव और प्रेम को जोड़ देते हैं, तो भक्ति बन जाती है। द्वार वही है। द्वार दूसरा हो भी नहीं सकता।
जिससे हम भीतर आते हैं, उससे ही हमें बाहर जाना होगा। जिस रास्ते से आप यहां तक आए हैं, घर लौटते वक्त भी उसी रास्ते से जाइएगा। सिर्फ एक ही फर्क होगा कि यहां आते समय आपका ध्यान इस तरफ था, आंखें इस तरफ थीं, रुख इस तरफ था। लौटते वक्त इस तरफ पीठ होगी। आंखें वही होंगी, सिर्फ दिशा बदल जाएगी। आप वही होंगे, रास्ता वही होगा; सिर्फ दिशा बदल जाएगी।
प्रेम की दिशा के परिवर्तन का नाम भक्ति है। और प्रेम से हम इस जगत में प्रवेश करते हैं। प्रेम से ही हम इस जगत के बाहर जा सकते हैं।
गीता–दर्शन?ओशो