साहित्य दर्पण Rekha suthar
प्रकृति मेरे सपने में एक औरत,बिजली जैसे कौंध रही।मटमेले आंचल से अपने,कालिख मुंह की पोंछ रही।। नैनों से बहता निर्झर उसके,खड़ी ज्यों मूरत मौन।अनायास मैंने पूछ लिया,हो आखिर तुम कौन? मेरा प्रश्न सुनकर,वो दावानल से जलने लगी।रुंधे गले से फिर,मुझे यूं कहने लगी। उड़ेल दिया मैंने जिस परममता का सागर अथाह,वो कभी मुझे देख ही न सका।पला बढ़ा वो गोद …