कुछ चेहरे लेकर
घर से निकलता हूँ
तुम्हे जो अच्छा लगता है
वो ही रंग निखरता है मेरे चहेरे का
खुद का चहेरा भी नही दिखता मुझे
आइना अक्सर देखता है चहेरा मेरा
मेरे चेहरे की आदत हो गई है
तुम्हारी आँखों की तरह बदलने की
चेहरों की भीड़ में कितने चहेरे है
और भीड़ का कोई अपना चहेरा नही
हँसते रोते मुस्कराते उदास निराश
पल पल लिबास बदलते चेहरे सब है मेरे पास
इक बात और
लोग लोगो का चेहरा ढूंढभी लेते है
कितने बेनकाब कितने कमजोर चहेरे
अफ़सोस
चेहरी की भीड़ में हर चेहरा हर किसी से नही मिलता
वैसे अपनी अपनी दुकान है हर किसी के पास चेहरों की
क्रोध हास्य शर्म और मुस्कराहट रंग चहेरे के
उड़ गए सब रंग जब यकायक उतरे नकाब चेहरों के
बचपन जवानी और बुढ़ापे
के चहेरे है जन्दगी की सच्चाई
कोरा इश्तेहार है मेरा जीनव
मुझे तलाश है आपने ही चेहरे की…@shaad
pawandeep
October 24, 2020 at 2:34 pm
बहुत ख़ूब गुरु जी ???