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‘कविता बेटी, कलम पत्नी, गीत बेटा और विरासत मेरा घर है’

डबवाली (सिरसा)। जिंदगी इक सफर के सिवा कुछ नहीं, देख धीरे चल, भागना तू छोड़ दे। ये कबीला कभी कुछ न देगा तुझे, अपना हक छीन ले, तू मांगना छोड़ दे। मशहूर कोरियोग्राफर संजीव शाद जिंदगी का संघर्ष कुछ यूं बयान करते हैं।

उन्हें रंगमंच का ऑलराउंडर कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। महज 12 साल की उम्र में मंच पर उतरने वाला यह कलाकार आज किसी पहचान का मोहताज नहीं।

कभी शारीरिक शिक्षक (पीटीआई) बनने का सपना पाले शाद आज रंगमंच का ट्यूटर बन गया है। 30 सालों में अथक मेहनत, प्रयासों से रंगमंच की परिभाषा तक बदल डाली है। डबवाली की माटी के इस हीरे की चमक से देश तथा विदेश में आयोजित होने वाले मेले निखरते हैं।

महज 25 मिनट के नुक्कड़ नाटक ने फूहड़ कल्चर, कन्या भ्रूण हत्या पर करारी चोट की। इसके बाद राजनीतिक पर व्यंग्यात्मक शैली अपनाते हुए ‘देख तमाशा कुर्सी दा’, लोगों को पोलियो की खुराक का महत्व समझाने के लिए ‘दो बूंदा जिंदगियां दीयां’ किया। तमाशबीन बनी जिंदगी पर शाद ‘क्या फर्क पड़ता है’ लेकर आए। तीन शब्दों में जिंदगी का निचौड़ निकालकर रख दिया। शिक्षा और आदमी नामक कोरियोग्राफी से विजडम बयान किया। 1857-1947 तक आजादी के संघर्ष को अपनी कोरियोग्राफी ‘अमर बलिदानी’ से बयान किया। नशे के खिलाफ करारी चोट करते हुए युवा यात्रा की।

कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ आवाज बुलंद करते हुए शाद ने कोरियोग्राफी ‘मां’, ‘एक अकेली लड़की’ और ‘धीयां’ पेश की। समाज की मनोस्थिति बयान करते हुए मंच के जरिये कई सवाल खड़े किए। लोगों को बेटियों के प्रति जागरूक किया। अपनी कला के जरिए लोगों को बताया कि बेटी क्या है? लिंगानुपात के आंकड़ों को मंच के जरिये प्रसारित करते हुए भविष्य के दर्शन करवाए। शाद का सफर यहीं खत्म नहीं हुआ।

रंगमंच को नई परिभाषा तथा बुलंदी देते हुए उन्होंने नाटक ‘शहीद’ लिखा। इसे अंबाला, यमुनानगर, बठिंडा, सिरसा, रानियां तथा हिसार में दिखाया गया।

इसके अतिरिक्त शाद ने टीवी सीरियल सरनावां, रौनक मेला, हसदे-हसांदे रहो में अपना जलवा बिखेरा। एक पंजाबी फिल्म में जिला उपायुक्त का रोल अदाकर खूब तालियां बटोरीं।

कविता बेटी, कलम पत्नी, गीत बेटा, विरासत मेरा घर है। खुद को अपडेट रखने के लिए हर समय कुछ किताबें अपने साथ रखता हूं। सोशल मीडिया साइट्स तथा सर्च इंजन की मदद से साहित्य खंगालता रहता हूं। मंच संचालन करने की आदत हो गई है। मेलों में लगातार 10 घंटे तक लाइव परफोर्म करना पड़ता है। मैं कहता हूं कि वो छोटी-छोटी उड़ानों पे गुरुर नहीं करता, जो परिंदा अपने लिए आसमान ढूंढता है।
-संजीव शाद।

साल 1994-95 में महाराष्ट्र से पीटीआई का कोर्स करने वाले शाद किसी जमाने में डबवाली में स्पेयर पार्ट्स की दुकान चलाते थे। रंगमंच ने दुकानदारी छुड़वाई। बेरोजगार को रोजगार भी दिया। जिंदगी के विभिन्न रूपों से गुजरते हुए शाद मंच संचालन करने लगे। आज उनके मंच संचालन से इंटरनेशनल स्तर का भोपाल को लोहड़ी उत्सव, पंजाब का मशहूर सरस मेला, नागौर का केमल फेस्टिवल, पंचकूला का मैंगो फेस्टिवल, फरीदाबाद का सूरजकुंड मेला, चंडीगढ़ का नवरात्र उत्सव रोशन होता है। इसके अतिरिक्त वे मस्कट में भी अपना जलवा दिखा चुके हैं। नॉर्थ जोन कल्चरल सेंटर पटियाला के साथ कला यात्रा के दौरान उन्होंने जम्मू, श्रीनगर, लेह लद्दाख, सिंधू दर्शन, कारगिल, कलौंन और मनाली में कला का प्रचार किया। इस दौरान भारतीय सेना के जवान शाद को दाद देते नहीं थके।

स्पोर्ट्स की तरह कला विभाग बने : शाद
संजीव शाद के अनुसार, खेलों को प्रोत्साहित करने के लिए खेल विभाग है। शिक्षा के लिए शिक्षा विभाग है। फिर कला के लिए कला विभाग क्यों नहीं। कला मिनिस्टर भी होना चाहिए। जो भारत खासकर हरियाणा में लुप्त हो रही लोक संस्कृति को बचाने का प्रयास कर सके। अगर सरकार कला को बचाने के लिए प्रयासरत है तो वह कला को विषय बनाकर लागू करे।

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‘कविता बेटी, कलम पत्नी, गीत बेटा और विरासत मेरा घर है’

डबवाली (सिरसा)। जिंदगी इक सफर के सिवा कुछ नहीं, देख धीरे चल, भागना तू छोड़ दे। ये कबीला कभी कुछ न देगा तुझे, अपना हक छीन ले, तू मांगना छोड़ दे। मशहूर कोरियोग्राफर संजीव शाद जिंदगी का संघर्ष कुछ यूं बयान करते हैं।

उन्हें रंगमंच का ऑलराउंडर कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। महज 12 साल की उम्र में मंच पर उतरने वाला यह कलाकार आज किसी पहचान का मोहताज नहीं।

कभी शारीरिक शिक्षक (पीटीआई) बनने का सपना पाले शाद आज रंगमंच का ट्यूटर बन गया है। 30 सालों में अथक मेहनत, प्रयासों से रंगमंच की परिभाषा तक बदल डाली है। डबवाली की माटी के इस हीरे की चमक से देश तथा विदेश में आयोजित होने वाले मेले निखरते हैं।

महज 25 मिनट के नुक्कड़ नाटक ने फूहड़ कल्चर, कन्या भ्रूण हत्या पर करारी चोट की। इसके बाद राजनीतिक पर व्यंग्यात्मक शैली अपनाते हुए ‘देख तमाशा कुर्सी दा’, लोगों को पोलियो की खुराक का महत्व समझाने के लिए ‘दो बूंदा जिंदगियां दीयां’ किया। तमाशबीन बनी जिंदगी पर शाद ‘क्या फर्क पड़ता है’ लेकर आए। तीन शब्दों में जिंदगी का निचौड़ निकालकर रख दिया। शिक्षा और आदमी नामक कोरियोग्राफी से विजडम बयान किया। 1857-1947 तक आजादी के संघर्ष को अपनी कोरियोग्राफी ‘अमर बलिदानी’ से बयान किया। नशे के खिलाफ करारी चोट करते हुए युवा यात्रा की।

कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ आवाज बुलंद करते हुए शाद ने कोरियोग्राफी ‘मां’, ‘एक अकेली लड़की’ और ‘धीयां’ पेश की। समाज की मनोस्थिति बयान करते हुए मंच के जरिये कई सवाल खड़े किए। लोगों को बेटियों के प्रति जागरूक किया। अपनी कला के जरिए लोगों को बताया कि बेटी क्या है? लिंगानुपात के आंकड़ों को मंच के जरिये प्रसारित करते हुए भविष्य के दर्शन करवाए। शाद का सफर यहीं खत्म नहीं हुआ।

रंगमंच को नई परिभाषा तथा बुलंदी देते हुए उन्होंने नाटक ‘शहीद’ लिखा। इसे अंबाला, यमुनानगर, बठिंडा, सिरसा, रानियां तथा हिसार में दिखाया गया।

इसके अतिरिक्त शाद ने टीवी सीरियल सरनावां, रौनक मेला, हसदे-हसांदे रहो में अपना जलवा बिखेरा। एक पंजाबी फिल्म में जिला उपायुक्त का रोल अदाकर खूब तालियां बटोरीं।

कविता बेटी, कलम पत्नी, गीत बेटा, विरासत मेरा घर है। खुद को अपडेट रखने के लिए हर समय कुछ किताबें अपने साथ रखता हूं। सोशल मीडिया साइट्स तथा सर्च इंजन की मदद से साहित्य खंगालता रहता हूं। मंच संचालन करने की आदत हो गई है। मेलों में लगातार 10 घंटे तक लाइव परफोर्म करना पड़ता है। मैं कहता हूं कि वो छोटी-छोटी उड़ानों पे गुरुर नहीं करता, जो परिंदा अपने लिए आसमान ढूंढता है।
-संजीव शाद।

साल 1994-95 में महाराष्ट्र से पीटीआई का कोर्स करने वाले शाद किसी जमाने में डबवाली में स्पेयर पार्ट्स की दुकान चलाते थे। रंगमंच ने दुकानदारी छुड़वाई। बेरोजगार को रोजगार भी दिया। जिंदगी के विभिन्न रूपों से गुजरते हुए शाद मंच संचालन करने लगे। आज उनके मंच संचालन से इंटरनेशनल स्तर का भोपाल को लोहड़ी उत्सव, पंजाब का मशहूर सरस मेला, नागौर का केमल फेस्टिवल, पंचकूला का मैंगो फेस्टिवल, फरीदाबाद का सूरजकुंड मेला, चंडीगढ़ का नवरात्र उत्सव रोशन होता है। इसके अतिरिक्त वे मस्कट में भी अपना जलवा दिखा चुके हैं। नॉर्थ जोन कल्चरल सेंटर पटियाला के साथ कला यात्रा के दौरान उन्होंने जम्मू, श्रीनगर, लेह लद्दाख, सिंधू दर्शन, कारगिल, कलौंन और मनाली में कला का प्रचार किया। इस दौरान भारतीय सेना के जवान शाद को दाद देते नहीं थके।

स्पोर्ट्स की तरह कला विभाग बने : शाद
संजीव शाद के अनुसार, खेलों को प्रोत्साहित करने के लिए खेल विभाग है। शिक्षा के लिए शिक्षा विभाग है। फिर कला के लिए कला विभाग क्यों नहीं। कला मिनिस्टर भी होना चाहिए। जो भारत खासकर हरियाणा में लुप्त हो रही लोक संस्कृति को बचाने का प्रयास कर सके। अगर सरकार कला को बचाने के लिए प्रयासरत है तो वह कला को विषय बनाकर लागू करे।

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