मुझे याद है
बलबन्त गार्गी जी का साँझा चुल्ला (नाटक)
उसका टाइटल गीत था
शुक्र है रब्बा साँझा चुल्ला ……..
अब भी शायद कई घरो में साँझा चुल्ला जलता है या नही दादी या
माँ पकाती है ……..दाल रोटी के भी अर्थ है…..
मेरी दादी के वक्त दो टाइम ही रोटी पकती थी
पहले वो तवे पे थोडा सा आता सेकती
और मै आटा लेकर आटे की चिड़िया या साँप बनाता
और वो गाय की पहली रोटी ….शायद उस रोटी का भी अर्थ होता था
बड़ा सा परिवार बैठ के खाता था
कभी कभी मेरी दादी चुल्ले को मिटटी का लेप भी करती
पूछता तो कहती
इससे टूटेगा नही ……और चुल्ला सफेद नया हो जाता था
आज नही है घर में वो चुल्ला और ना दादी
न वो आटे की चिड़िया सांप……..
बल्कि रोटी तो आज भी घर पे
बनती है गर्म गर्म गोल गोल नरम नरम
जो बच जाती है
वो गली के कुत्तो को डाल दी जाती है
कोई
मांगने भिखारी आता है
तो
यकायक
मुख से निकल पड़ता हा
चल बाबा आगे
अभी नही बनाई है रोटी …….रोटी के भी अर्थ है
अब उतनी बनती है
रोटी
जितनी भूख है रोटी की …..
और चुल्ला ……….पक्के घरो के साथ ही पक्का हो गया और मिटटी नही है घर में
इसलिए
मिटटी के चूल्हे भी नही है
है तो
मेरी आँखों में पानी
जिससे मैं कभी कभी मन के किसी कौन में बसे काल्पनिक से सांझे चूल्हे को मिटटी का लेप कर देता हूँ……..