लगातार बदलते शैक्षिक परिदृश्य में स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाने के प्रयास की जरूरत है। शिक्षक समाज का संवदेनशील व्यक्ति है। विद्यार्थी शिक्षकों से हर वक्त संपर्क में रहना चाहते हैं, विशेषकर प्राथमिक स्तर पर। इसलिए स्कूलों को कार्यालय कामकाज से वास्तव में मुक्त कर शिक्षण को प्रभावी बनाने पर जोर देना होगा। हाल के वर्षों में शहर में स्कूल और कॉलेज दोनों में शिक्षा की तस्वीर बदली है। सामयिक रूप से शिक्षा के उद्देश्यों को नए सिरे से परिभाषित करना जरूरी है। एक शिक्षक, एक साथ कितनी कक्षाओं के कितने बच्चों को भली-भांति पढ़ा सकेगा, इस बारे में गम्भीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। आदर्श व्यवस्था कहती है एक शिक्षक पर 20 बच्चे होना चाहिए, वर्तमान में यह संख्या दोगुना है। शिक्षण, प्रशिक्षण और परीक्षण की विधियों में भी नयापन लाना होगा। उम्र के हिसाब से बच्चों को कितना सिखाया जाना चाहिए, ऐसे कोई मानक नहीं हैं।
एक दौर था जब राजकीय स्कूलों के शिक्षकों की विद्यार्थियों के भविष्य निर्माण में अहम भूमिका मानी जाती थी। इसलिए हर विषय के लिए अलग शिक्षक होते थे। फिर वक्त के साथ शिक्षकों की जिम्मेदारियां बढ़ी व बंटती गईं। परिणाम सामने है, सरकारी और गैर शासकीय कामों के कारण शिक्षक अपना मूल कार्य पर अपेक्षित ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। सरकारी स्कूलों में ज्यादा क्वालिफाइड शिक्षक होने के बावजूद शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर घटा है। यही वजह है कि अभिभावक का रुख प्राइवेट स्कूलों की तरफ हो गया। कहते हैं, बदलाव होता है तो अच्छे परिणाम भी आते हैं। एक दौर तक नि:शुल्क शिक्षा ज्यादा महत्वपूर्ण हुआ करती थी लेकिन आज अभिभावक बच्चों की शिक्षा और भविष्य को लेकर कोई समझौता करने को तैयार नहीं हैं। शिक्षा का स्वरूप भी व्यापक हो गया है। अब अध्यापन की कई आधुनिक तकनीक विकसित हो गई है। पब्लिक स्कूल और इंटरनेशनल स्कूल की विचारधारा ने शिक्षा के क्षेत्र को व्यापक बना दिया। पाठ्यपुस्तकें व पाठ्यक्रम बदलते जा रहे हैं परंतु उनके अनुरूप स्कूलों में साधन-संसाधन की कमी है। शिक्षकों को विभिन्न पदनाम दे दिए गए हैं। इससे शिक्षक अप्रत्यक्ष ही तनाव में रहने लगे हैं, असर पढ़ाई पर हो रहा है। सरकार को एक जैसी कार्यनीति, पदनाम, वेतन नीति बनाना होगी। शिक्षा में परिवर्तन के लिए प्रबंधन, शिक्षक और तौर-तरीकों में तालमेल बनाया जाना चाहिए।
पुनरावलोकन की जरूरत क्यों ?
समय के साथ बदलती परिस्थितियों के मुताबिक शिक्षा को ढालना भी जरूरी है। ऐसे में शिक्षा और शिक्षक, इन दोनों का पुनरावलोकन जरूरी है। तकनीकी शिक्षक उभर कर सामने आ रहे हैं। शिक्षकों की परंपरागत भूमिका पर इसका सीधा प्रभाव भी पड़ा है। प्रासंगिकता तक उनकी प्रभावित हुई है। यूट्यूब, फेसबुक, गूगल स्कॉलर आदि के जरिए पाठ्य सामग्री की भरमार हो गई है। ऐसे में जरूरी है कि शिक्षा और शिक्षकों के बदलते स्वरूप के अनुसार इन्हें सांस लेने का पर्याप्त मौका दिया जाए।
एक व्यवसाय के रूप में अध्यापन
शहरों से लेकर गांव तक सूचना और संचार तकनीकों का विस्तार हो गया है। इंटरनेट पर पाठ्य सामग्री उपलब्ध है और इन्हें प्रस्तुत भी इस तरह से किया जा रहा है कि ये बड़ी लोकप्रिय हो गई हैं। शिक्षकों की भूमिका जो मानवीय आधार पर चली आ रही थी, इन तकनीकों के उपयोग के कारण विस्थापित हुई है। जिस तरह से दूसरे व्यवसाय रहे हैं, वर्तमान परिस्थितियों में अध्यापन ने भी अब व्यवसाय का ही रूप ले लिया है।
यहां सुधार की आवश्यकता
दौर बदल गया है तो निश्चित तौर पर शिक्षकों की भूमिका भी बदली है। नई चीजों के साथ तालमेल बैठाकर चलना जरूरी है। आज जब इंटरनेट और सोशल मीडिया भी ज्ञान प्राप्त करने का केंद्र बनते जा रहे हैं और ये भी शिक्षकों की तरह पेश आ रहे हैं तो ऐसे में शिक्षकों को भी अपने परंपरागत तरीकों के साथ नए तरीकों को भी शामिल करते हुए और सामंजस्य बैठाते हुए शैक्षणिक कार्य को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। शिक्षकों के समान शिक्षकों की गरिमा को आगे भी बरकरार रखने के लिए शिक्षकों का अपनी बदलती भूमिका को समझना जरूरी है।
शिक्षा के विभिन्न आयाम
पहले जब लोग कम पढ़े-लिखे थे तो पढ़े-लिखे लोग ही शिक्षक के तौर पर उनका मार्गदर्शन करते थे, लेकिन आज के दौर में जब मीडिया व सूचना तकनीकों का इतना विस्तार हो गया है तो दूरस्थ शिक्षा के कारण शिक्षकों के स्वरूप में भी बदलाव आए हैं। एक तरह से मानव संबंधों की महत्ता घटी है। तकनीकी कुछ ऐसी हावी हुई हैं कि अब तो डिजिटल मीडिया को अपने शिक्षक के तौर पर छोटे बच्चे भी अपना रहे हैं।
निष्कर्ष
समाज में शिक्षकों की भूमिका कैसे विकसित होती गयी और वर्तमान समय के मुताबिक शिक्षकों की भूमिका को किस तरह से परिभाषित किए जाने की जरूरत है, इस लेख में आपने पढ़ा है। निश्चित तौर पर शिक्षकों की भूमिका ही निर्धारित करती है कि समाज किस दिशा में आगे बढ़ेगा और उसका भविष्य कैसा होगा।
सोनू बजाज